पृथ्वी और पर्यावरण https://degreecentigrade.in Sat, 07 Sep 2024 11:58:08 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.1 230706229 समुद्र के बढ़ते स्तर पर नजर रखने के लिए अंतरिक्ष यान ‘सेंटिनल – 6 माइकल फ्रीलिच’ 10 नवंबर 2020 को होगा लांच https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a5%81%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%ac%e0%a4%a2%e0%a4%bc%e0%a4%a4%e0%a5%87-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%b0-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%a8%e0%a4%9c/ https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a5%81%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%ac%e0%a4%a2%e0%a4%bc%e0%a4%a4%e0%a5%87-%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%b0-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%a8%e0%a4%9c/#respond Fri, 06 Sep 2024 10:16:45 +0000 https://degreecentigrade.in/?p=66 (सेंटीनल 6 माइकल फ्रीलिच के लॉंच को 11 दिन टाला गया जिससे उसको लॉंच करने वाले रॉकेट के दो फाल्कन-9 इंजिनों को बदलने के लिए पर्याप्त समय मिले। अंततः ये कैलिफोर्निया के वैंडेनबर्ग वायु सेना बेस से 21 जून 2020 को लॉंच हुआ।)

10 नवंबर 2020 का दिन जलवायु परिवर्तन और उससे जुडी हुई जानकारियों पर नजर रखने वालों के लिए खास होगा. क्योंकि इसी दिन धरती के समुद्रों पर नजर रखने वाले एक नए पृथ्वी-अवलोकन उपग्रह (अर्थ ओब्जर्विंग सैटेलाइट) ‘सेंटिनल – 6 माइकल फ्रीलिच’ को कैलिफोर्निया के वैंडेनबर्ग वायु सेना बेस से लॉन्च किया जायेगा. इसका मकसद जलवायु परिवर्तन की वजह से हमारे महासागरों के स्तर में होने वाली बढ़ोत्तरी पर अब तक का सबसे सटीक डेटा एकत्र करना है. ये सतह पर होने वाले मिलीमीटर-स्केल के बदलावों को भी रिकॉर्ड कर लेगा. यूएस-यूरोपीय साझेदारी का यह मिशन साढ़े पांच साल चलेगा.

शोधकर्ताओं के लिए भविष्य को जानना हमेशा से ही जिज्ञासा का विषय रहा है. ऐसे में जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों के लम्बे और सटीक रिकॉर्ड की जरुरत है. जेसन श्रृंखला के उपग्रह 2001 के बाद से वैश्विक समुद्र के स्तर की निगरानी करते रहे हैं. ये समुद्र की बड़ी घटनाओं जैसे गल्फ स्ट्रीम और कई हजार किलो मीटर के बड़े क्षेत्र में घटने वाली घटनाओं जैसे कि एल-नीनो और ला-नीना पर निगरानी रखते रहे हैं. पर समुद्र तटों के पास होने वाले छोटे-छोटे बदलावों को मापना इस श्रृंखला के उपग्रहों की क्षमताओं से परे था. जबकि इन छोटे बदलावों को मापना जहाजों के नेविगेशन और मछली पकड़ने जैसे कामों को काफ़ी प्रभावित कर सकता है.

सेंटिनल – 6 माइकल फ्रीलिच’ में लगे वैज्ञानिक उपकरण एक तकनीकि को इस्तेमाल करता है जिसे रेडियो औक्यूलेशन कहा जाता है जो धरती के वातावरण के भौतिक गुणों जैसे वातावरण के घनत्व, तापमान और नमी में आने वाले सूष्म बदलावों का अध्ययन संभव हो पता है. इस सैटेलाइट से ये पता लगाना आसन हो जायेगा कि जलवायु परिवर्तन पृथ्वी के समुद्र तटों को कैसे और कितनी तेजी से बदल रहा है.

  • इस मिशन के डेटा से वैज्ञानिकों को समुद्र की सतह की ऊँचाई को ठीक से नाप पाएंगे और यह अनुमान लगाया जा सकेगा कि हमारे महासागर कितनी तेज़ी से बढ़ रहे हैं.
  • ये वायुमंडलीय तापमान और आर्द्रता का सटीक डेटा भी एकत्र करेगा. जिससे मौसम के पूर्वानुमान और जलवायु मॉडल को बेहतर बनाने में मदद होगी.
  • वैश्विक वातावरण के तापमान के रिकॉर्ड को बढाकर, ये मिशन ये समझने में वैज्ञानिकों की मदद करेगा कि पृथ्वी का तापमान कैसे बदल रहा है.
  • वातावरण के तापमान और आर्द्रता, और समुद्र की ऊपरी परत के तापमान पर जानकारी,  उन मॉडलों को बेहतर बनाने में मदद करेगी जो तूफान के गठन और विकास को ट्रैक करते हैं.

‘डॉ माइकल फ्रीलीच’ नासा के अर्थ साइंस डिवीजन के पूर्व निदेशक थे जिनके नाम पर इस सैटेलाइट का नाम रखा गया है. 2025 में, सेंटिनल -6 माइकल फ्रिलिच के जुड़वां, सेंटिनल -6 बी को लॉन्च किया जायेगा जो सेंटिनल -6 माइकल फ्रिलिच के काम को अगले आधे दशक के लिए बढ़ाएगा.

इस नए उपग्रह से आई जानकारी ये समझने में योगदान करेगी कि बढ़ते समुद्र मानवता को कैसे प्रभावित करेंगे.

Published on Oct 7, 2020

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सेंटीनल 6 माइकल फ्रीलिच ने काम करना शुरू किया https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%b8%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f%e0%a5%80%e0%a4%a8%e0%a4%b2-6-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%87%e0%a4%95%e0%a4%b2-%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%9a-%e0%a4%a8%e0%a5%87/ https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%b8%e0%a5%87%e0%a4%82%e0%a4%9f%e0%a5%80%e0%a4%a8%e0%a4%b2-6-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%87%e0%a4%95%e0%a4%b2-%e0%a4%ab%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%9a-%e0%a4%a8%e0%a5%87/#respond Fri, 06 Sep 2024 10:00:03 +0000 https://degreecentigrade.in/?p=64 हर साल हमारे समुद्र तल की ऊंचाई औसतन 3.2 मिमी बढ़ रही है। इसके पीछे दो खास कारण हैं। पहला भूमि पर मौजूद ग्लेशिएर व आइस शीट्स का पिघलना और दूसरा तापमान में बढ़ोतरी की वजह से समुद्र के पानी का फैलना। इन दोनों में से पहला समुद्र सतह की करीब दो तिहाई बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेवार है। ग्रीन हाउस गैसों के लगातार बढ़ते उत्सर्जन के कारण पृथ्वी के वातावरण में हीट या ऊष्मा ट्रेप होटी है, उसका 90% तक समुद्र सोख लेते हैं। इससे पानी का तापमान बढ़ता है और वो फैलता है। इस प्रक्रिया के तहत तापमान बढ्ने से होने वाला पानी का फैलाव समुद्र सतह की बाकी के एक तिहाई बढ़ोतरी के लिए ज़िम्मेवार है।

इस दिशा में ज्यादा सटीक ज्ञान हासिल करने के लिए 1990 के दशक की शुरुआत में अन्तरिक्ष से महासागरों की सतह पर निगाह रखना शुरू किया गया। समुद्रों की सतह पर निगरानी रखना महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे महासागरों की तरंगों और चक्रवात आदि के बारे में पूर्वानुमान लगाने में मदद मिलती है। उपलब्ध जानकारी के अनुसार इन तीन दशकों में समुद्र सतह के बढ्ने की दर दुगनी हो चुकी है। ये जानकारी बहुत मार्के की है क्यूंकी समुद्र तट आम जिंदगी पर सीधे तौर पर असर डालते हैं।

इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव 21 नवम्बर 2020 को आया जब कैलिफोर्निया के वैंडेनबर्ग वायु सेना बेस से ‘सेंटीनल 6 माइकल फ्रीलिच’ नाम के सैटेलाइट को लॉन्च किया गया। इसका मकसद समुद्र सतह की ऊंचाई और अन्य महत्वपूर्ण जानकारियाँ जैसे कि समुद्र की सतह पर चलने वाली हवा की तीव्रता और उसमें उठने वाली तरंगों की ऊंचाई मापना है। यह सैटेलाइट दुनिया की समुद्री सतह के लगभग 90% भाग पर निगाह रखेगा। यह समुद्र और मौसम के पूर्वानुमान को बेहतर बनाने में मददगार होगा।

लॉंच के कुछ समय बाद ही सेंटीनल 6 माइकल फ्रीलिच अपने कक्ष में स्थापित हो गया और समुद्र सतह को मॉनिटर करने वाले मौजूदा रिफ्रेन्स सैटेलाइट जेसन-3 से 30 सेकंड के अंतराल पर पृथ्वी के चक्कर काटने लगा। इसके बाद वैज्ञानिकों और इंजीनियर, दोनों से मिलने वाले आंकड़ों को क्रॉस कैलिब्रेट करने के काम में लग गए। यह बेहद जरूरी है जिससे दोनों से मिलने वाले आंकड़ों में निरंतरता बने। एक बार जब वे सेंटीनल 6 माइकल फ्रीलिच से मिलने वाले आंकड़ों से संतुष्ट हो जाएंगे तो सेंटीनल 6 माइकल फ्रीलिच अपने पूर्ववर्ती जेसन-3 का स्थान ले लेगा और मुख्य सैटेलाइट बन जाएगा। हालांकि इसमें अभी कई महीनों का समय लगेगा। 

नासा की प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार 6 महीने तक की जांच और कैलिब्रेशन के बाद सेंटीनल 6 माइकल फ्रीलिच से समुद्र तल की ऊंचाई से संबन्धित डेटा (जिसे एल्टिमेट्री डेटा कहा जाता है) 22 जून को इसके उपयोगकर्ताओं तक पहुँच जाएगा। सेंटीनल 6 माइकल फ्रीलिच में मौजूद इन्स्ट्रूमेंट्स इस डेटा को एकत्रित करने के कुछ घंटों के भीतर ही ये जानकारी लोगों तक पहुंचा देगा।  समुद्र सतह की ऊंचाई से संबन्धित आंकड़ों की पहली श्रेणी 2.3 इंच (5.8 सेंटीमीटर) तक सही (शुद्ध) होगी। दूसरी श्रेणी का डेटा जो कि 1.4 इंच (3.5 सेंटीमिटर) तक सटीक होगा, मिलने के दो दिन के बाद लोगों तक पंहुचेगा। अन्य डेटासेट को, जो 1.2 इंच तक सटीक होगा, इस साल के अंत तक जारी किया जाएगा। यह शोध कार्यों और क्लाइमेट विज्ञानैयों के लिए खास महत्व का होगा जिनकी दिलचस्पी समुद्रों की ऊंची होती सतह और उसके व्यापक प्रभाव पर है ।

इस सैटेलाइट से मिलने वाले आंकड़ों को अन्य सैटेलाइटों (जैसे GRACE-FO and IceSat-2) से मिलने वाले आंकड़ों से मिलाया जाएगा और वैज्ञानिक ये बात पुख्ता तौर पर बता पाएंगे कि समुद्र तट की ऊंचाई में बढ़ोत्तरी में कितना हाथ बरफ के पिघलने का है और कितना गरमाने की वजह से समुद्र के पानी के फैलने का। इसके आंकड़े इस्तेमाल करके वैज्ञानिक बेहतर तरीके से आंकलन कर पाएंगे कि पृथ्वी किस तरह बदल रही है।

Published on Jul 3, 2021

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पृथ्वी के पानी का सर्वेक्षण करेगा नासा का ‘स्वोट मिशन’ https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%aa%e0%a5%83%e0%a4%a5%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a5%87%e0%a4%95%e0%a5%8d/ https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%aa%e0%a5%83%e0%a4%a5%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%aa%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a5%87%e0%a4%95%e0%a5%8d/#respond Fri, 06 Sep 2024 09:24:28 +0000 https://degreecentigrade.in/?p=61 2022 में लॉंच होने वाले नासा के ‘सर्फ़ेस वॉटर और ओशीन टोपोग्राफी मिशन’ या स्वोट मिशन की तैयारियां ज़ोरों पर हैं। इस मिशन का मकसद पूरी पृथ्वी की सतह पर मौजूद पानी का सर्वेक्षण करना है। ये दुनिया का पहला इतना व्यापक सर्वेक्षण होगा। ‘स्वोट पृथ्वी अवलोकन उपग्रह (अर्थ ओबजरविंग सैटेलाइट)’ पृथ्वी के लगभग 90% भाग का सर्वेक्षण करेगा और झीलों, नदियों, जलाशयों व सागरों की हर 21 दिन में कम से कम 2 बार जांच करेगा। ‘स्वोट’ सैटेलाइट पानी के स्रोतों को तफसील से माप कर जानकारी इकट्ठा करेगा जिस से पता लगे सके कि पृथ्वी पर मौजूद पानी के स्रोतों में समय के साथ किस तरह बदलाव आ रहे हैं। इससे मिलने वाली जानकारी से ‘ओशीन सरकुलेशन मौडल’ और जलवायु और मौसम संबंधी पूर्वानुमान बेहतर होंगे और साफ पानी का बेहतर प्रबंधन करने में सुविधा होगी।

इस दिशा में एक बड़ा पड़ाव 27 जून 2021 को आया जब नासा की कैलिफोर्निया स्थित ‘जेट प्रॉपल्शन प्रयोगशाला’ (जेपीएल) की एक टीम ने इस सैटेलाइट की शान और शोध की दृष्टि से महत्वपूर्ण उपकरणों (पेलोड) को अमेरिकी वायु सेना के सी -17 हवाई जहाज पर लादा। ये 30 जून को फ़्रांस के केन्स के निकट स्थित ‘थेल्स अलेनिया क्लीन रूम फैसिलिटी’ में पहुंच गए। यहाँ इंजीनियर और टेकनीशियन इन हार्डवेयर को सेटेलाइट के साथ एकीकृत करेंगे।   

इस दिशा में एक बड़ा पड़ाव 27 जून 2021 को आया जब नासा की कैलिफोर्निया स्थित ‘जेट प्रॉपल्शन प्रयोगशाला’ (जेपीएल) की एक टीम ने इस सैटेलाइट की शान और शोध की दृष्टि से महत्वपूर्ण उपकरणों (पेलोड) को अमेरिकी वायु सेना के सी -17 हवाई जहाज पर लादा। ये 30 जून को फ़्रांस के केन्स के निकट स्थित ‘थेल्स अलेनिया क्लीन रूम फैसिलिटी’ में पहुंच गए। यहाँ इंजीनियर और टेकनीशियन इन हार्डवेयर को सेटेलाइट के साथ एकीकृत करेंगे।   

जेपीएल के कई इंजीनियर और तकनीशियनों की एक टीम भी साथ गयी है। ये सीएनईएस के अपने सहयोगियों को इसको पूरा तैयार करने में मदद करेंगे। एक बार काम पूरा होने पर स्वोट वापस कलिफोर्निया लाया जाएगा जहां उसे ‘स्पेस-एक्स फाल्क्न 9’ रॉकेट की मदद से वांडेनबर्ग एयर फोर्स बेस से छोड़ा जाएगा। हालांकि इसमें समय लगेगा और ये काम नवम्बर 2022 के बाद ही होने के आसार हैं।

‘स्वौट’, अमेरिकी अन्तरिक्ष एजेंसी ‘नासा’, फ्रेंच अन्तरिक्ष एजेंसी के ‘सीएनईएस’ का एक साझा मिशन है जिसमें कनाडियन अन्तरिक्ष एजेंसी, और यूनाइटेड किंगडम की स्पेस एजेंसी का भी योगदान है।

पानी एक सीमित संसाधन है। इस मिशन के तहत एक एसयूवी के बराबर का अन्तरिक्ष यान पृथ्वी की सतह पर मौजूद पानी का सर्वे करेगा। इसकी ऊंचाई को माप कर वैज्ञानिक ये अनुमान लगा पाएंगे कि किस जगह इसकी कितनी मात्रा उपलब्ध है। इससे उपलब्ध डेटा की मदद से ये जाना जा सकेगा कि

– ‘बाढ़ के मैदानों’ (फ्लड प्लेन) और आद्र क्षेत्रों (वैटलैंड) में कैसे बदलाव आ रहे हैं

– साफ पानी की झीलों और नदियों में कितना पानी जा और आ रहा है और कितना पानी वापस समुंदर में जा रहा है। इसकी मदद से समुद्र के उन इलाकों में निगाह रखी जा सकेगी जहां सतह की ऊंचाई में फेरबदल हो रहे हैं।

– समुद्र में उठने वाली वृत्ताकार धाराओं, जिन्हें भँवर कहते हैं, का पहली बार वैश्विक ओबजरवेशन हो पाएगा।

– समुद्र ऊष्मा को कैसे स्टोर करते हैं और कैसे इसे वातावरण में छोड़ते हैं।

– समुद्री वातावरण में कार्बन का संचार कैसे होता है।  

समुद्र की लहरों में आने वाले बदलाव के बारे में जानकारी उस समय समुद्र पर चल रही गतिविधियों, जैसे कि समुद्री जहाज, के लिए महत्व की होती हैं क्यूंकी ये गतिविधियां लहरों, ज्वार-भाटों, तूफानों और अन्य कई समुद्री घटनाओं से सीधी तौर पर प्रभावित होतीं हैं।

स्वोट से शोधकर्ताओं को पृथ्वी की सतह पर मौजूद पानी की मात्रा और उसके वितरण से संबन्धित करीब 1 टेरा बाइट डेटा प्रतिदिन मिलेगा।

Originally published on Jul 6, 2021

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शानदार ‘गंगा डॉल्फ़िन’ गायब न हो जाए! https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%a6%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%97%e0%a4%82%e0%a4%97%e0%a4%be-%e0%a4%a1%e0%a5%89%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%ab%e0%a4%bc%e0%a4%bf%e0%a4%a8-%e0%a4%97/ https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%a6%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%97%e0%a4%82%e0%a4%97%e0%a4%be-%e0%a4%a1%e0%a5%89%e0%a4%b2%e0%a5%8d%e0%a4%ab%e0%a4%bc%e0%a4%bf%e0%a4%a8-%e0%a4%97/#respond Fri, 06 Sep 2024 09:12:45 +0000 https://degreecentigrade.in/?p=56 भारतीय उपमहाद्वीप की शानदार प्रकृतिक जलीय विरासत में से एक है ‘गंगा डॉल्फ़िन’। ये स्थानीय और दुर्लभ स्तनधारी भारत में हिमालय की तलहटी से लेकर गंगा सागर तक गंगा, ब्रह्मपुत्र व मेघना नदियों और इनकी सहायक नदियों में वास करता है। इसके अलावा बांग्लादेश, नेपाल और भूटान में भी ये पाया जाता है।

जंगल की सेहत जानने के लिए टाइगर और पहाड़ों की सेहत जानने के लिए स्नो लेपर्ड की जो अहमियत है वहीं अहमियत नदियों की सेहत के लिए डॉल्फ़िन की है। ये जीव अगर अपने वास स्थान में फल – फूल रहे हैं तो इससे पता चलता है कि उस पारिस्थितिकीय तंत्र में जीव के लिए पर्याप्त भोजन मतलब जैव विविधता और सुरक्षा है। नदी का पारिस्थितिकीय तंत्र किस अवस्था में है अगर ये जानना हो तो उसमें डॉल्फ़िन की उपस्थिति को एक ‘सूचक’ माना जाता है।

पृथ्वी में अब सादे (मीठे) पानी में पायी जाने वाली डॉल्फ़िन की केवल तीन प्रजातियाँ बचीं हैं। गंगा डॉल्फ़िन इनमें से एक है। इसके अलावा ‘सिंध नदी’ की डॉल्फ़िन -‘भूलान’ या ‘प्लैटैनिस्टा गैंजेटिका माइनर’ पाकिस्तान में और दक्षिणी अमेरिका की ‘अमेज़न नदी’ में पाये जाने वाली डॉल्फ़िन -‘बोटो’ या ‘इनिया जिओफ़्रेंसिस’ हैं। अभी हाल तक ही इस श्रेणी का एक और शानदार प्राणी पृथ्वी में मौजूद था। चीन की यांगत्सी नदी में पाये जाने वाली चीनी डॉल्फ़िन या ‘बिजी डॉल्फ़िन या ‘लिपोट्स वेक्सिलीफर’। सन 1980 तक ‘बिजी’ की आबादी लगभग 480 थी पर इनके वास स्थानों की बरबादी, इंसानी घुसपैठ, प्रदूषण का ऐसा प्रकोप हुआ कि 2006 आते-आते एक भी बिजी बाँकी नहीं बची। समुद्रों के मुक़ाबले नदियों में घुसपैठ और प्रदूषण का ज्यादा बुरा प्रभाव पड़ता है इसलिए नदियों पर जीवन-यापन करने वाली सभी सीटेशिएन्स खतरे में हैं। दुख की बात है कि साल 2006 में दो नावों ने यांगत्सी नदी में इसके वास स्थानों का 6 हफ्ते लगाकर 2 बार गहन सर्वे किया पर वे एक भी बिजी को नहीं ढूंढ पाये। एक बार धरती से गायब प्रजाति फिर लौट कर वापस नहीं आती। इसके बाद आईयूसीएन ने इसे ‘गंभीर रूप से विलुप्तप्राय और संभवतः विलुप्त’ प्रजातियों की श्रेणी में डाल दिया। हालांकि इसकी वापसी पर आज भी दुनियाँ भर के करोड़ों लोगों की आँखें लगीं हैं और चीन से आने वाली कोई भी खबर जो इस ओर इशारा करती हो कि यांगत्सी नदी के किसी हिस्से में बिजी को देखा गया न सिर्फ चीन में बल्कि दुनिया भर के हर उस इंसान के चेहरे पर जो पर्यावरण और जैव विविधता को समझता है खुशी की लहर दौड़ा देती है।

गंगा डॉल्फिन, प्लैटैनिस्टा गैंजेटिका गैंजेटिका, भारतीय उपमहाद्वीप में पाये जाने वाले सबसे करिश्माई विशाल जीवों (मेगा -फ़ौना) में से एक है। उपमहाद्वीप में ये भारत में हिमालय की तलहटी से लेकर गंगा सागर तक, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान में पायी जातीं हैं। अनेक ऐतिहासिक दस्तावेजों से पता चलता है (जिनमें कि सम्राट अशोक, अकबर और जहाँगीर के जमाने के मुख्य हैं) कि कभी गंगा डॉल्फ़िन अपने वास स्थान में लाखों की संख्या में मौजूद थीं। आज इनकी अपने पूरे वितरण क्षेत्र में कुल संख्या 2500 से भी कम बची है। इनमें से 80% डॉल्फ़िन भारतीय क्षेत्र में हैं। इसकी मुख्य वजह नदियों के प्रवाह में कमीं, इनका शिकार (ज़्यादातर गैर इरादतन), डैम और बैराज बनने की वजह से इनके वास स्थान का छोटे-छोटे इलाकों में बिखराव (हेबीटाट फ्रेग्मेंटेशन) और नदियों का प्रदूषण है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं जहां अंधाधुंध मछ्ली पकड़ने वालों ने इस स्तनधारी को बड़ी मछ्ली समझ कर मार दिया।  

गंगा डॉल्फ़िन का कानून के तहत संरक्षण करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने इनको भारतीय वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम 1972 के शैड्यूल 1 में चीते, बाघ और शेर के साथ रखा है। ज़्यादातर दो नदियों के संगम के आसपास के गहरे पानी में पायी जाने वाले इस शानदार जीव को 2009 में भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव भी घोषित किया गया। अंतरराष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने इसे अपनी लाल सूची में संकटग्रस्त प्रजातियों की श्रेणी में रखा है। राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन द्वारा प्रत्येक वर्ष 5 अक्तूबर को ‘गंगा डॉल्फिन दिवस’ मनाया जाता है। गंगा नदी के पारिस्थितिकीय तंत्र की बहाली के लिए भी इस जीव का संरक्षण बेहद जरूरी है।

27 अप्रैल 2020 को कोविड -19 की वजह से लगे देशव्यापी पहले लॉकडाउन के दौरान उत्तर प्रदेश के मेरठ में गंगा नदी में डॉल्फ़िन को देखा गया। इसका विडियो इंटरनेट पर खूब पसंद किया गया। इस घटना को कोविड-19 की वजह से लगाए गए लॉक डाउन के दौरान नदियों के पारिस्थितिकीय तंत्र में अचानक आए सुधार से जोड़कर देखा गया। वहीं 8 जनवरी 2021 को एक दिल दहलाने वाला विडियो सामने आया जहां उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में कुछ लोगों ने डॉल्फ़िन को मछ्ली समझकर पीट-पीट कर मार डाला। इससे साफ समझ में आता है की गंगा के किनारे बसे गावों और लोगों में अभी इस संकटग्रस्त प्रजाति को लेकर पर्याप्त जानकारी नहीं है।    

गंगा डॉल्फ़िन अब मुख्यतः गंगा और उसकी सहायक नदियों में ही बचीं हैं। इनकी सबसे ज्यादा संख्या भागलपुर के ‘विक्रमशिला गांगेय डॉल्फ़िन आश्रायणी’ में है जो कि इनके संरक्षण पर केन्द्रित एकमात्र शरणस्थली है। यहीं पर एक ‘डॉल्फ़िन वेधशाला’ भी बन रही है। आशा है कि भविष्य में गंगा डॉल्फ़िन के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ेगी, वैज्ञानिक संरक्षण का काम भी तेजी से बढ़ेगा और इस अमूल्य प्राणी को आने वाली पीढ़ियाँ केवल चित्रों और म्यूज़ियम में नहीं बल्कि नदियों में फलते-फूलते देख पाएँगी।

बैनर फ़ोटो आभार: आफ़ी अली/ विकिमीडिया कॉमन्स

Originally published on  Jul 29, 2021

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शानदार ग्रेट इंडियन बस्टर्ड बच पाएगी? https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%a6%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%97%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%9f-%e0%a4%87%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%a8-%e0%a4%ac%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f/ https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%a6%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%97%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%9f-%e0%a4%87%e0%a4%82%e0%a4%a1%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a4%a8-%e0%a4%ac%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%9f/#respond Fri, 06 Sep 2024 09:07:37 +0000 https://degreecentigrade.in/?p=52 एक और शानदार पंछी ‘ग्रेट इंडियन बस्टर्ड (जीआईबी)’ को हम खोने की कगार पर हैं।

भारत में ‘बस्टर्ड’ की चार प्रजातियां पायीं जातीं हैं। ‘ग्रेट इंडियन बस्टर्ड’ न सिर्फ इनमें सबसे भारी है बल्कि ये पृथ्वी पर उड़ने वाले सबसे भारी पंछियों में से एक है। 18 किलो तक वजन वाले ये पंछी अपना ज़्यादातर समय जमीन में ही बिताना पसंद करता है और कभी-कभार ही अपने वास स्थान के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में उड़ कर जाता है।

घास के मैदान इसको खासतौर पर पसंद हैं जहां इसे अपने लिए कीट, विभिन्न प्रकार की छिपकलियां और घास के बीज वगैरा इफ़रात में मिलते हों। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड घास के मैदान के पारिस्थितिकीय तंत्र की सेहत जानने के लिए एक सूचक की तरह काम करता है।

कभी पूरे उपमहाद्वीप में मौजूद ‘ग्रेट इंडियन बस्टर्ड’ अब 10 प्रतिशत भाग में भी नहीं बचा है। इसकी बची हुई संख्या ज़्यादातर थार रेगिस्तान में ही सीमित है।

50 साल पहले तक भी भारत में करीब 1000 जीआईबी थीं। 2020 फ़रवरी में भारत ने ‘यूएन कन्वेन्शन ऑन माईग्रेटरी स्पेसीज ऑफ वाइल्ड एनिमल्स’ की पार्टियों के  गांधीनगर में हुए तेरहवें सम्मेलन को सूचित किया था कि भारत में केवल 150 जीआईबी ही बचीं हैं। जिसमें से 128 राजस्थान में, 10 कच्छ में और कुछ महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्रा प्रदेश में हैं। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने जीआईबी को ‘घोर संकटग्रस्त’ प्रजातियों की सूची में डाला है।

ग्रेट इंडियन बस्टर्ड प्रवास के लिए अनेक देशों की सीमाओं को पार करता है। इस दौरान भारत –पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्र में शिकार और भारत में बिजली-लाइन टकराव जैसी चुनौतियां इसके सामने आतीं हैं। भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्लूआईआई) के शोध के अनुसार राजस्थान में कम से कम 10 जीआईबी बिजली के तारों से टकराकर मरीं हैं। इन पंछियों की आगे देखने की क्षमता कम होती है और भारी वजन का होने के कारण वो तारों से भिड़ने पर फुर्ती से अपने को संभाल पाने में अक्षम होतीं हैं।

पिछले हफ्ते (26 जुलाई 2021) केंद्र सरकार ने राज्य सभा को जानकारी दी कि जनवरी 1, 2021 की स्थिति के अनुसार गुजरात के कच्छ जिले के ‘कच्छ बस्टर्ड अभयारण्य’ में एक भी ‘ग्रेट इंडियन बस्टर्ड’ नहीं है। अभी दो महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने बिजली उत्पादन करने वाली कंपनियों को बिजली की लाइनों को ग्रेट इंडियन बस्टर्ड के राजस्थान और कच्छ के वास स्थानों में भूमिगत करने के निर्देश दिये थे ताकि इस शानदार प्रजाति को विलुप्त होने से बचाया जा सके।

कच्छ बस्टर्ड अभयारण्य केवल 2 स्क्वायर किमी में है लेकिन इसका 220 स्क्वायर किमी का दायरा पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र है। आज जीआईबी का मुख्य आवास यहीं है। इस अभयारण्य के बनने के बाद इस इलाके में जीआईबी की संख्या 1999 में 30 से बढ़कर 2007 में 45 तक पहुंच गयी थी। लेकिन जैसे ही 2008 से अभयारण्य की सीमा पर पवन और सौर ऊर्जा की लाइनें आना शुरू हुईं 2018 में इनकी संख्या घटकर 25 रह गयी। आज इनकी संख्या केवल 7 ही बची है और इनमें से एक भी नर नहीं है।

जीआईबी का बचना अब काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि उसके संरक्षण में लगे लोग कितनी सफलता हासिल कर पाते हैं।

यूएन कन्वेन्शन ऑन माईग्रेटरी स्पेसीज के गांधीनगर के सम्मेलन में ही ‘एशियाई हाथी’ और ‘बंगाल फ्लोरिकन’ के साथ ही ग्रेट इंडियन बस्टर्ड को ‘प्रवासी प्रजातियों के बारे में संयुक्त राष्ट्र समझौते के परिशिष्ट-I (सीएमएस के परिशिष्ट-I)’ में शामिल करने के भारत के प्रस्ताव को भी सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। इससे अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण निकायों और मौजूदा अंतरराष्ट्रीय कानूनों और समझौतों से इन प्रजातियों का देशों की सीमाओं में भी संरक्षण करने में मदद मिलेगी।

2015 में केंद्र सरकार ने जीआईबी के संरक्षण के लिए ‘जीआईबी स्पेसीज़ रिकवरी प्रोग्राम’ शुरू किया। जिसके तहत भारतीय वन्य जीव संस्थान (डबल्यूआईआई) और राजस्थान सरकार के वन विभाग ने मिलकर संरक्षण प्रजनन केंद्र बनाया है जिसमें वन्य क्षेत्र से जीआईबी के अंडे लाकर अप्राकृतिक रूप से सेए जाते हैं और नियंत्रित वातावरण में उनमें से बच्चे निकलते हैं। पिछले साल तक ऐसे 9 अंडों से बच्चे निकाले जा चुके हैं। इस तरह से इनकी कम से कम इतनी संख्या तैयार करने कि योजना है कि विलुप्त होने की खतरे झेल रही ये प्रजाति बच सके और इस तरह के बंद वातावरण में तैयार हुई तीसरी पीढ़ी को छोड़ा जाए।        

(ग्रेट इंडियन बस्टर्ड. बैनर आभार: Prajwalkm/ विकिमिडिया कॉमन्स)

Publishing Date: Aug 7, 2021

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मछलियों में टाइगर – माहसीर https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%ae%e0%a4%9b%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%9f%e0%a4%be%e0%a4%87%e0%a4%97%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a5%80/ https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%ae%e0%a4%9b%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%af%e0%a5%8b%e0%a4%82-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%9f%e0%a4%be%e0%a4%87%e0%a4%97%e0%a4%b0-%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a4%b8%e0%a5%80/#respond Fri, 06 Sep 2024 07:12:16 +0000 https://degreecentigrade.in/?p=47 धरती की शान – इसकी जैव विविधता – को बचाने में दिलचस्पी रखने वालों के लिए एक खुशखबरी है कि ‘ब्लू फिंड माहसिर’ को अंतर्राष्ट्रीय पृक्रति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) की लाल सूची के ‘संकटग्रस्त’ प्रजातियों वाली श्रेणी से हटा दिया गया है। इसका मतलब है कि वो अब विलुप्त होने के खतरे से बाहर हो चुकी है। ‘ब्लू फिंड माहसिर’ अब ‘संकटमुक्त प्रजातियों’ की श्रेणी में है। हालांकि माहसीर कि अन्य प्रजातियाँ जैसे कि गोल्डन माहसीर और हम्पबैक माहसीर अभी भी ‘घोर संकटग्रस्त’ श्रेणी में हैं।  

तथ्य: कौन है माहसीर

मछलियों में टाइगर के नाम से जाने जाने वाली ‘माहसीर’ साफ पानी में पायी जाने वाली सबसे मजबूत बड़ी मछलियों में से एक है। साइप्रिनिड परिवार की माहसीर की खासियत उसके बड़े-बड़े शल्क (स्केल्स), मोटे और शक्तिशाली होंठ और मुह के सामने के लंबे बारबेल (मुह के पास पाये जाने वाले बाल जैसे संवेदी अंग) हैं।

जब नदी में बारिश का पानी बहुतायत में होता है माहसीर ज़्यादातर प्रजनन तभी करती है और पानी के अंदर पाये जाने वाले पत्थरों, चट्टानों आदि पर अंडे देती है। इसकी प्रजनन क्षमता कम है (6000- 10,000 अंडे प्रति किग्रा)। एक माहसीर मछ्ली करीब 10 सेमी प्रति वर्ष की दर से बढ़ती है। ये सर्वहारी हैं मतलब सब कुछ खा लेती है। जब ये एक जगह से दूसरी जगह जाती हैं (माइग्रेशन) तो सभी उम्र की मछलियाँ मांसाहारी और सर्वाहारी होती हैं जबकि 46 सेंटीमिटर से कम आकार की मछलियाँ छोटी मछलियों को खाने लगती हैं।         

दुनिया में माहसीर की 47 किस्में मौजूद हैं जिसमें से भारत में 15 पायी जाती हैं। ‘टोर रेमादेवी’ और ‘टोर मोयरेंसिस’ नाम की नयी नस्ल की माहसीर अभी हाल में ही पहचानी गयीं हैं। 

सुनहरी माहसीर

सुनहरी (गोल्डन) माहसीर पीठ की तरफ सुनहरे रंग की होती है और इसके पंख कुछ लालिमा लिए हुए पीले रंग के होते हैं। गंगा और ब्रह्मपुत्र और इनकी सहायक नदियों में गोल्डेन माहसीर पायी जाती है।

सुनहरी माहसीर की संख्या में भारी कमी आयी है जिसके पीछे वजह प्रदूषण, माहसीर के प्राकृतिक आवास का खतम होना और इन मछलियों को अत्यधिक पकड़ना मुख्य हैं। माहसीर अपने पर्यावरण को लेकर संवेदनशील है और यदि पानी के पर्यावरण में फेर बदल होता है तो ये उसे बर्दाश्त नहीं कर पाती। गोल्डन माहसीर आई यू सी एन (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर) की ‘संकटग्रस्त प्रजातियों की रेड लिस्ट (लाल सूची) में शामिल है। मतलब कि इनकी संख्या इतनी कम बची है कि अगर इनका समय रहते संरक्षण नहीं किया गया तो इनके पृथ्वी से गायब होने के खतरे हैं।

हंपबैक माहसीर

पिछले 150 सालों से ‘हंपबैक माहसीर’ मतलब ‘कूबड़ वाली माहसीर’ के नाम से जानी जाने वाली माहसीर को जून 2018 में अंततः वैज्ञानिक नाम दिया गया। ‘कावेरी का टाइगर’ नाम से विख्यात इस प्रजाति को ‘जिओलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ में काम करने वाली मशहूर मत्स्य विज्ञानी के. रेमदेवी के नाम पर ‘टोर रेमादेवी’ नाम दिया गया है। इस नामकरण के लिए जरूरी डीएनए सिक्वेन्सिंग को ‘केरला यूनिवरसिटि ऑफ फिशेरीज एंड ओशन स्टडीस, ‘इंडीयन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स एडुकेशन एंड रिसर्च (पुणे), और बोर्नमाउथ यूनिवरसिटि, यूके के एक ग्रुप ने किया।  

कूबड़ वाली माहसीर केवल दक्षिण भारत के कावेरी नदी और उसकी सहायक नदियों में पायी जाती है जिसमें कूर्ग, मोयार, भवानी, काबिनी और पंबार आदि के छोटे छोटे इलाके आते हैं। ये मछ्ली 1.5 मी तक लंबी और 55 किग्रा तक भारी हो सकती है। शोधार्थी इन्हें विशाल काय जन्तु (मेगाफ़ौना) की श्रेणी में रखते हैं। 

वैज्ञानिक नाम न मिलने से ‘कूबड़ वाली माहसीर’ को काफी नुकसान हुआ। इसकी वजह से ये मछ्ली, मछलियों के संरक्षण में लगे वैज्ञानिकों की नजरों से इतने सालों तक बची रही और इसे कानूनी आधार पर सुरक्षा या संरक्षित श्रेणी में लाकर बचाने के प्रयास नहीं किए जा सके। एक बात जो इस शानदार मछ्ली को विलुप्त होने से बचा पायी वो थी इसका केरल के ‘चिन्नार’ में पाया जाना। ‘चिन्नार’ संरक्षित क्षेत्र होने के साथ ही वन्यजीव अभयारण्य भी है जहां मछ्ली पकड़ने की मनाही है। आम लोगों कि पहुंच से दूर ये सुरक्षित इलाका ‘कूबड़ वाली माहसीर’ के लिए वरदान साबित हुआ।

वैज्ञानिक नाम मिलने के एक साल के अंदर ही मतलब 2019 में इस ‘कूबड़ वाली माहसीर’ को आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर) की रेड लिस्ट (लाल सूची) में ‘घोर-संकटग्रस्त’ प्रजातियों की श्रेणी में शामिल किया गया। इस सूची में दुनिया भर की उन प्रजातियों को रखा जाता है जो विलुप्त होने के गंभीर खतरे झेल रहीं हैं मतलब जिनकी संख्या इतनी कम है कि अगर जैसा चल रहा है वैसा ही चलता रहे तो वे बहुत जल्द ही धरती में नहीं दिखेंगी।

सुनहरी माहसीर. बैनर चित्र आभार:  Derek Dsouza/ विकिमिडिया कॉमन्स

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कीटला में सामाजिक सहभागिता से परम्परागत जोहड़ का निर्माण https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%95%e0%a5%80%e0%a4%9f%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%b8%e0%a4%b9%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97%e0%a4%bf/ https://degreecentigrade.in/2024/09/06/%e0%a4%95%e0%a5%80%e0%a4%9f%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%b8%e0%a4%b9%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%97%e0%a4%bf/#respond Fri, 06 Sep 2024 06:40:41 +0000 https://degreecentigrade.in/?p=21 इस वर्ष (2021) के शुरुआत में आरंगर  ने अपना पहला  जमीनी काम अलवर के कीटला गाँव में जोहड़ तैयार करने का किया। कीटला गाँव, ग्राम पंचायत: धीरोड़ा, पोस्ट ऑफिस: राजगढ़, अलवर जिले में आता है और दौसा जिले से करीब ३५ किमी है। 

जोहड़ एक तरह का तालाब ही है जिसमें बारिश के पानी को इकट्ठा किया जाता है। अरावली की छोटी पहाड़ियों से घिरे ऊबड़ –खाबड़ इस इलाके में इन पहाड़ियों से बहकर आने वाले पानी को कच्चा बांध बनाकर आसानी से रोका जा सकता है। मिट्टी पत्थर से बने कच्चे बांध को समय के साथ घास और पेड़-पौधे मिलकर मजबूती देते हैं। पूर्वी राजस्थान के सूखे इलाके में बारिश के पानी को रोकने का ये काफी पुराना, प्रचलित और कामयाब तरीका है। यहां बारिश के पानी को सँजोने के अलावा साफ पानी के दूसरे स्रोत जैसे की बारहमासी नदियां या प्रकृतिक झरने नहीं हैं ऐसे में जोहड़ बनाने जैसे परंपरागत तरीके पानी की कमीं वाले महीनों में भी पानी मुहैया करने में काफी कारगर सिद्ध हुए हैं।

कीटला गाँव के लोगों की सालाना आमदनी २०,००० रुपए से भी कम है। पानी के अभाव में साल में केवल एक बार मानसून में ही खेती हो पाती है। ये पशुपालक समुदाय है पर पानी की कमी के चलते हरा चारा भी जानवरों को उपलब्ध नहीं है। जिसकी वजह से दूध उत्पादन भी आधा रह गया है। ऐसे हालातों में गांव के लोगों के पास केवल एक ही चारा रह जाता है कि वे शहरों की ओर दिहाड़ी मजदूर बनकर चले जाएं। जिन धंधों में वो जाते हैं वे किसी भी तरह से सुरक्षित नहीं होते। गांव की महिलाएं और लड़कियां तो हर दिन ३  से ४ घंटे केवल पानी भरने में ही लगा देती हैं क्योंकि अमूमन ३ से ४ किमी  दूर से हर दिन पानी भरने जाना होता है वो भी कई चक्कर।  ऐसे में बच्चों खास कर लड़कियों के स्कूल जाने का व कुछ सीखने का समय बाधित रहता है। कितने आश्चर्य की बात है कि केवल बारिश के पानी के सही संचय से इतनी सारी समस्याओं का हल निकाला जा सकता है। 

जमीनी स्तर पर यह काम १६ जनवरी २०२१ को शुरू हुआ और २२ फरवरी २०२१ को पूरा हो गया। जोहड़ निर्माण का यह पूरा काम सामुदायिक भावना से किया गया। इसमें आए खर्चे का वहन १०९ लोगों ने व्यक्तिगत दान के माध्यम से किया। हमारे फील्ड सहयोगी कुंज बिहारी शर्मा जी ने बताया कि कई प्रवासी मजदूर भी इस काम में जुटे जो कोविड-१९ के चलते घर आए हुए थे।  कोविड-19 से पैदा हुई अभूतपूर्व स्थिति को देखते हुए काम का एक बड़ा हिस्सा हाथ से किया गया और जेसीबी मशीन के इस्तेमाल को जितना  संभव हुआ कम किया गया। कुल मिलाकर जो काम हुआ उसका सार कुछ इस तरह है:

१. कीटला गांव में कुल ४२७६ क्यूबिक मीटर या ४२७६००० लीटर क्षमता का जोहड़ बना।
२. इस काम ने कुल २२ लोगों को १४६ दिन की दिहाड़ी के बाराबर रोजगार उपलब्ध कराया जिसमें से ६८ प्रतिशत महिलाएं थीं।

इस वर्ष मानसून यदि सामान्य रहता है तो उम्मीद की जा रही है कि ये जोहड़ गांव के काफी बड़े इलाके में खेती संभव बना पाएगा और करीब १०० परिवारों की आय को प्रभावित करेगा। गांव में कम से कम १३ कुएं ऐसी जगह स्थित हैं जो इस जोहड़ के भरने से रिचार्ज होंगे तो महिलाओं की दूर-दराज से घर के कामों के लिए पानी ढ़ोने की समस्या के भी कुछ कम होने की उम्मीद की जा रही है।

अपडेट

11 जुलाई 2024 की तस्वीरें इस जोहड़ की सफलता की कहानी कह रही हैं।

  • ये पोस्ट ७ जून २०२१ को पहली बार पब्लिश हुई थी
  • ६ सितम्बर २०२४ को पोस्ट अपडेट की गयी
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तीरोल ने प्रकृति आधारित समाधानों को अपनाया https://degreecentigrade.in/2024/09/05/nature-based-solutions-udaipur-rajasthan/ https://degreecentigrade.in/2024/09/05/nature-based-solutions-udaipur-rajasthan/#respond Thu, 05 Sep 2024 04:43:05 +0000 https://degreecentigrade.in/?p=9 उदयपुर-सिरोही राजमार्ग पर उदयपुर से कुछ 50 कि.मी. दूर गोगुंडा ब्लॉक में एक रास्ता दाईं ओर जाता है। कई घुमावदार मोड़ों वाला ये रास्ता नान्देशामा की छोटी सी बाज़ार से होते हुए आपको तीरोल गाँव ले जाता है। तीरोल राजमार्ग से करीब 25 कि.मी. दूर है।  

अरावली की पहाड़ियों से घिरे इस गाँव का इलाका छोटी पहाड़ियों चट्टानों से भरपूर और ऊबड़ – खाबड़ है। मानसून के महीनों में पूरा इलाका हरी घास से भर जाता है जो ठंड आने पर सुनहरी हो जाती है। पश्चिमी भारत के किसी भी अन्य गाँव की तरह जनवरी के महीने में भी जब वनस्पतियाँ सूख चुकी होती हैं तीरोल का प्राकृतिक सौदर्य देखते ही बनता है।  गाँव में राजपूत और जनजातियाँ खास तौर पर ‘भील’ रहते हैं।

इस क्षेत्र में 637 मि.मी. की औसत वार्षिक वर्षा के बावजूद भी पानी की कमी रहती है। पानी की मुख्य स्रोत कुँए हैं। महिलाओं और लड़कियों को सिर पर पानी ढ़ोकर लाने के लिए लम्बा रास्ता तय करना पड़ता है। कपड़े धोने और घरेलू ज़रूरतों के लिए पानी भरने हेतु पास के हैण्ड पम्पों, नलों या कुओं के पास लम्बी कतारें आम हैं। तीरोल में भी कुछ वर्ष पूर्व तक यहीं स्थिति थी। हालांकि गाँव चम्बल की एक सहायक नदी ‘बनास’ के किनारे बसा है फिर भी पानी और चारे की यहाँ बेहद कमी थी। लेकिन पिछले कुछ समय में कुछ ऐसा हुआ है जिससे यहाँ का परिदृश्य बदला है। हुआ यूं कि यहाँ के ग्रामीण समुदाय ने एकजुट होकर 52 हेक्टेयर की अप्रबंधित सामलाती भूमि का संरक्षण किया जिससे स्थानीय समुदाय को न सिर्फ एक सकारात्मक ऊर्जा मिली, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिकीय फायदे के लिए ‘नेचर बेस्ड सोल्युशंस’ या ‘प्रकृति आधारित समाधानों’ को समझने के लिए ये जगह एक शानदार उदाहरण के तौर पर उभरी है।

सामलाती भूमि का महत्व – ग्रामीण समुदायों की आजीविका के दो मुख्य स्रोत –  कृषि और पशुपालन – काफी हद तक सामलाती भूमि पर निर्भर करते हैं। मेवाड़ के इस इलाके के गाँवों के औसतन आधे से भी ज्यादा घर विभिन्न प्रकार के उत्पादों जैसे भोजन (फल, शाक, अनाज), पशुओं के लिए चारे और बिक्री योग्य अन्य लघु उपजों के लिए इस पर आश्रित हैं। ये उपज स्थानीय समुदाय के खाने और बेचने दोनों के काम आती है। सामलाती भूमि का सही प्रबंधन नहीं होने से इसका निरंतर क्षय हुआ है जिससे इस पर निर्भर लोगों की आजीविका और पारिस्थितिकीय तंत्र दोनों पर ही प्रभाव पड़ा है।

तीरोल के सामलाती चरागाह के संरक्षण का काम 2017 में शुरू हुआ। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और कोषाध्यक्ष समेत एक 14 सदस्यीय ‘चरागाह प्रबन्धन और विकास समिति’ बनाई गयी। तब से समिति की नियमित बैठकें हो रहीं हैं जिनमें गाँव की पारिस्थितिकी की पुनर्बहाली के लिए जरूरी संरक्षण- संवर्धन के कामों की वरीयता तय की जाती है। समिति के कार्य संचालन और निर्णय प्रक्रिया में मेघ सिंह (अध्यक्ष), लखमा राम (उपाध्यक्ष) तथा जोध सिंह (कोषाध्यक्ष) की भूमिका अहम रही है।

45 वर्षीय ‘खीमा राम’ बताते हैं ‘गाँव की सामलाती भूमि के संरक्षण का काम उसी वर्ष सामुदायिक भागीदारी के साथ शुरू हो गया’। ख़ीमा राम तीरोल के जनजातीय समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और समिति के ‘कम्युनिटी रिसोर्स पर्सन’ भी हैं। ‘सबसे पहले चरागाह का सर्वेक्षण किया गया और भूमि को दो भागों में बांटा गया जिससे काम को अलग-अलग चरणों में पूरा करने में सुविधा हो। पहले चरण में करीब 20 हेक्टेयर भूमि की चारों ओर पत्थर की पक्की दीवार बनाकर घेराबंदी की गयी जबकि 32 हेक्टेयर को पशुओं के चरने के लिए खुला छोड़ दिया गया’।

सर्वे से पता चला कि चरागाह खर-पतवारों खासतौर पर लैंटाना से भरा पड़ा है। इसलिए शुरुआती काम घेराबंदी से सुरक्षित किए हुए क्षेत्र से खर-पतवारों को समाप्त करना था। इसके बाद एंड्राइड आधारित टूल्स जैसे कॉमन लैंड मैपिंग (सीएलएम), ग्राउंड वाटर मोनिटरिंग टूल (जीडब्लूएमटी) और कम्पोजिट लैंडस्केप एंड असेसमेंट टूल (क्लार्ट) की मदद से क्रमशः सामलाती जमीन का सीमानिर्धारण, उसमें जलस्तर का मापन और सुरक्षित क्षेत्र में जैवभौतिक प्रक्रियाओं को करने की योजना तैयार की गई। India Observatory से इन टूल्स के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।       

तीरोल के चरागाह में बारिश के पानी के बहाव की गति को कम करने के लिए ‘लूज़ बोल्डर चेक डैम्स’ और मेढ़ों का निर्माण किया गया। इसके साथ ही घास की देसी प्रजातियों के बीज बोए गए और चरागाह को फिर से हरा-भरा करने के लिए स्थानीय प्रजातियों की तकरीबन 12,000 पौधें लगाई गईं। महुआ (मधुका इंडिका), सलर (बोसवेलिया सेराटा), कदय (स्टरकुलिया यूरेन्स), बहड़ (टरमीनेलिया बेलिरिया), तेंदू (डायोस्पाईरॉस मेलनोंजाइलोन), और खिरनी (राइटिया टिंकटोरिया) इत्यादि प्रजातियों के पौधे चरागाह में रोपे गए। चरागाह के इस हिस्से की घेराबंदी से पशुओं का घास चरना बंद हो गया जिससे पुनर्जनन में सहायता मिली और मृदा अपर्दन भी कम हुआ। हालांकि खुली चराई पर रोक लगाई गयी पर समुदाय के लोग इस क्षेत्र से अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ चारा काटकर कर ले जा सकते हैं।

खीमा राम के अनुसार ‘चरागाह में घास तेजी से बढ़ी जिसका कुछ फ़ायदा हुआ। 2018 में कार्य के सकारात्मक परिणाम नज़र आने लगे और उत्पादन कम होने के बावजूद कुछ घास उपलब्ध हुई। वर्ष 2019 से घास की पैदावार अच्छी रही है’। खीमा राम आगे कहते हैं ‘अगर इस साल की ही बात करें (2021 मानसून के बाद) तो गाँव के 300 परिवारों ने करीब 150 पूले घास इकट्ठा की। इसको सुखा कर रख लिया गया है और अगले मानसून तक मतलब पूरे साल के लिए यह पर्याप्त होगी। मानसून में नयी घास तैयार हो जायेगी। स्वयं खीमा राम ने 8 बकरियां तथा एक गाय पाली है। वे बताते हैं ‘एक पूला घास की कीमत 10 रू के करीब है। अकेले 2021 में ही संरक्षित चरागाह से समुदाय को कुछ 4.5 लाख का चारा मिला जिसका सीधा असर मवेशियों से मिलने वाले उत्पादों पर पड़ा है। पशुधन पर आश्रित परिवार ज्यादा आत्मनिर्भर हुए हैं। खीमा राम जैसे अनेक लोगों के लिए बकरे को बेचना आमदनी का कभी-कभार होने वाला अतिरिक्त जरिया है जो कि काफी जरूरी है। लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण गाय का दूध है जिससे परिवार के पोषण में इजाफा होता है। ऐसी परिस्थितियों में सामलाती चरागाह से मुफ्त चारे की उपलबद्धता उनके लिए बड़ा सहारा है।

सामुदायिक प्रयासों से गाँव में पानी की उपलब्धता भी बढ़ी है। पानी अब पूरे वर्ष उपलब्ध रहता है जिससे किसान जाड़ों में बोई जाने वाली रबी की फसल भी उगा सकते हैं। खीमा राम कहते हैं ‘2018-19 में एलबीसीडी का काम चला था। नालों में बाँध लगाए थे। उससे पानी का बहाव रुका। गाँव में पानी की बढ़ोत्तरी हुई है। कुओं में पानी बढ़ा है। गेहूँ के सीजन में पहले पानी कम पड़ता था अब नहीं पड़ता। पूरे साल पानी रहता है’। 

मेवाड़ के ये गाँव खेती से ज्यादा पशुपालन पर आश्रित हैं। खेती योग्य जमीन कम है, इलाका पहाड़ी है और उत्पादन कम। खीमा राम के पास 1.5 बीघा जमीन है। अभी हाल तक ही वे केवल खरीफ के मौसम में मक्के की खेती करते थे। उनकी जमीन चारागाह से नीचे की तरफ है। चरागाह में हुए जल संरक्षण का इसे पूरा लाभ मिल रहा हैजाड़ों में भी मिट्टी नम रहती है।ये पहली बार है (दिसम्बर 2021) जब उन्होंने चने और सरसों की फसल उगाई। अभी फसल खेत में लगी हुई है और उन्हें इसके पकने का इंतज़ार है।

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समुदाय शासित सामलाती चारागाह भूमि से समुदाय की चारे और पानी की जरूरतें पूरी हो रही हैं, उनकी आर्थिक मदद हो रही है वहीं अप्रबंधित चरागाहों की तुलना में संरक्षित और प्रबंधित चारागाहों के असंख्य पर्यावरणीय, पारिस्थितिकीय तथा जलवायवीय लाभ इस काम को हर दृष्टि से फायदेमंद बनाते हैं।

ऐसे कई मानक हैं जो समुदाय द्वारा प्रबंधित भूमि के इकोलोजिकल और जलवायवीय लाभ की तरफ इशारा करते हैं। सामलाती भूमि कार्बन का प्राकृतिक भण्डार होती है जो कार्बन की बहुत सारी मात्रा को लंबे समय तक सुरक्षित रखे रहती है। सामलाती भूमि के क्षरण से इसकी कार्बन संचय की क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता (कोनसेंट्रेशन) बढ़ती है। ऐसी भूमि के पुनरुद्धार (रिवाइवल) के लाभों को मापने के लिए एफईएस अलग-अलग जगहों की वार्षिक रूप से ‘सामाजिक-पारिस्थितिकी (सोशिओ- एकोलोजिकल) मोनिटरिंग’ करता है। इसमें उदयपुर के इलाके भी आते हैं।  2019–20 में की गई इन जांचों के परिणाम बताते हैं कि समुदाय द्वारा प्रबंधित सामलाती भूमि में कार्बन की मात्रा (12.6 टन/ हेक्टेयर), अप्रबंधित सामलाती भूमि में कार्बन की मात्रा (2.6 टन/ हेक्टेयर) से तकरीबन 5 गुना ज्यादा है। इसी प्रकार समुदाय द्वारा प्रबंधित सामलाती जमीन में पैदावार (27.9 टन/ हेक्टेयर) अप्रबंधित जमीन की तुलना में 5 गुना ज्यादा पायी गयी (5.8 टन/ हेक्टेयर)।

किसी भी पारिस्थिक तंत्र की समृद्धि तथा स्वास्थ्य को उसकी प्रजातीय विविधता से भी मापा जा सकता है। प्रजातीय विविधता में कमी उस परितंत्र के असंतुलित होने की ओर इशारा करती है। वहीं अच्छी प्रजातीय विविधता परितंत्र की बदलती हुई जलवायवीय परिस्थितियों, परागण और भविष्य की अन्य चुनौतियों से संघर्ष की ताकत बढाती है। इससे समुदाय को खाद्य सुरक्षा मिलती है जो उनकी आजीविका और खुशहाली में बढ़ोत्तरी करने में मददगार है। प्रजातीय विविधता स्वच्छ जल की उपलब्धता तथा गुणवत्ता को सुधारने के साथ ही साथ जलवायु और हवा की गुणवत्ता को भी नियंत्रित करती है। किसी क्षेत्र की प्रजातीय विविधता मापने के सूचकों में से दो मुख्य हैं- 1) ट्री स्पेसीस रिचनेस और 2) शेनोन इंडेक्स। जिस अध्ययन का जिक्र ऊपर किया गया है उसमें ‘समुदाय प्रबंधित सामलाती जमीन’ की ट्री स्पेसीस रिचनेस (प्रजातीय समृद्धि) S: 14 और शेनोन इंडेक्स: 2.05 पाया गया। वहीं अप्रबंधित भूमि में स्पेसीस रिचनेस S का मान: 8 और शेनोन इंडेक्स: 1.53 पाया गया। जहाँ प्रजातीय समृद्धि ज्यादा होती है वहाँ गैर काष्ठ वन उत्पाद (नॉन टिंबर फॉरेस्ट प्रोड्यूस), प्राकृतिक रेशे तथा समुदाय के लिए ईंधन की लकड़ी की उपलब्धता भी अधिक होती है। सामलाती भूमि में वानस्पतिक विविधता चारे की अच्छी उपलब्धता को भी दिखाता है |

इस इलाके में भूमिहीन, सीमान्त और छोटे किसान कुल ग्रामीण परिवारों का 85% हैं जिनमें से ज्यादातर पशुपालन करते हैं। करीब 75% चारे के लिए गाँव की सामलाती भूमि पर आश्रित हैं। गाँव में चारे की उपलब्धता कम पड़ जाने पर इसकी आपूर्ति समुदाय को अन्य स्रोतों से चारा खरीदकर करनी पड़ती है। चारे की उपलब्धता में कमी आर्थिक रूप से कमज़ोर घरों को और भी कमज़ोर बना देती है। चारे पर खर्चे में बढ़ोत्तरी लोगों को पशुपालन छोड़ने पर मजबूर कर देती है। इन इलाकों में पशुपालन तभी संभव है जब चारे के बड़े हिस्से की आपूर्ति सामलाती भूमि से ही हो। एफईएस  के अध्ययन के आंकड़ों के अनुसार इस क्षेत्र की समुदाय प्रबंधित सामलाती भूमि में चारे का उत्पादन 1.5 टन/हेक्टेयर है जबकि अप्रबंधित सामलाती भूमि में यह 0.1 टन/हेक्टेयर है। जाहिर है कि प्रबंधित क्षेत्र में उत्पादन 15 गुना ज्यादा है। सामलाती चरागाहों में चारे की उपलब्धता में सुधार सुनिश्चित करता है कि समुदाय की बाज़ार के स्रोतों पर निर्भरता में कमी आए और ये सीमान्त समुदाय पशुपालन कर सकें |

तीरोल के चरागाह के पारिस्थितिकीय तंत्र की पुनर्बहाली और संरक्षण एक ‘नेचर बेस्ड सोल्यूशन’ या ‘प्रकृति पर आधारित उपाय’ है जिसकी मदद से चारे और पानी की कमी से सम्बंधित सामाजिक चुनौतियों, वनस्पति उत्पादन में वृद्धि के माध्यम से कार्बन अवशोषण, वानस्पतिक विविधता में बढ़ोत्तरी, एक वर्ष में एक से अधिक फसलों की पैदावार से लेकर पशुपालन को संभव बनाकर समुदाय को आत्मनिर्भर बनाने जैसी चुनौतियों का समाधान निकलता दिख रहा है।  

तीरोल में चरागाह के पारितंत्र की पुनर्बहाली और संरक्षण का काम अभी चल रहा है और समुदाय इसका मतलब समझता है। वे जानते हैं कि सामलाती भूमि के संरक्षण, पुनरुद्धार और प्रबंधन के लिए उनका सतत प्रयासरत रहना बहुत ज़रूरी है। इसलिए चरागाह के पारिस्थितिक तंत्र को और अधिक स्वस्थ बनाने के लिए समुदाय मिट्टी तथा नमी के संरक्षण के लिए लगातार काम कर रहा है। पहाड़ी चरागाह के चारों तरफ समान ऊँचाई की खाइयाँ (कोंटूर ट्रेंचेस) खोदी जा रही हैं। सार्वजनिक फण्ड जैसे कि मनरेगा का इस्तेमाल करके पांच कच्चे तालाब तथा दो एनीकट बनाने की योजना भी है। खीमा राम के अनुसार “एनीकट का काम चल रहा है। एक महीने पहले दिसम्बर में शुरू हुआ। एक बन चुका है और दूसरे पर अभी काम चल रहा है। ‘तलाई’ मानसून से पहले ही चालू हुई थी। 2021 में ही बनी। मिट्टी की है तो पहले साल पानी ज्यादा नहीं रुका। मिट्टी का जमाव नहीं हुआ। आशा है कि अगले साल से पानी रुकेगा”|

चरागाह परितंत्र की पुनर्बहाली और प्रबंधन के लिए सतत सामुदायिक प्रयास सुनिश्चित करेंगे कि सामलाती भूमि उपजाऊ और स्वस्थ रहे। ये प्रयास वर्षा के पानी के बहाव को और भी धीमा करेंगे, बारिश के पानी का संचयन करेंगे और भूजल को बढ़ाएँगे तथा मिट्टी को नम रखेंगे जिससे पेड़-पौधों और घास की उपज में बढ़ोत्तरी होगी। ये साफ दिखता है कि चरागाह में बड़ी संख्या में महिलाएं मजदूरी कर रहीं हैं। इतनी अथक मेहनत इसलिए क्योंकि इस तरह के काम को करने के लिए जनवरी से लेकर अप्रैल तक मौसम अनुकूल है। मई से चिलचिलाती गरमी में काम तो दूर धूप में खड़ा होना भी दूभर हो जाएगा। इस बात को यहाँ की औरतों से ज्यादा कोई समझ सकता है क्या?  

इस इलाके में, जिसमें तीरोल भी आता है, ‘फ़ाउंडेशन फॉर इकोलोजिकल सेक्युर्टी’ (एफईएस) समुदायों को सामलाती भूमि का बेहतर तरीके से प्रबंधन करने में सन 2000 से मदद कर रही है। ‘एफईएस’ एक गैर सरकारी संस्था है जो कि पूरे देश में प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों – जैसे कि वन, चरागाह और पानी के स्रोतों आदि के संरक्षण के लिए काम करती है जिससे ग्रामीण समुदाय की आर्थिक और सामाजिक उन्नति हो।  ये कॉमन या सामलाती संसाधन ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिक तंत्र की रीढ़ हैं। ‘एफईएस’ के बारे में अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें।

तीरोल में ‘रेस्टोरेशन और लाइवलिहुड इनिशिएटिव’ के तहत किए गए इस काम को बजाज ऑटो, एक्सिस बैंक फ़ाउंडेशन, ग्रो ट्रीज के आर्थिक सहयोग से किए गया। इसके साथ ही समुदाय ने ‘चरागाह विकास कार्य’ के तहत अपने चरागाहों के पुनरुद्धार के काम के लिए मनरेगा से पर्याप्त धन का लाभ उठाया। 

इस लेख में ‘वार्षिक सामाजिक-पारिस्थितिकी (सोशिओ- एकोलोजिकल) मोनिटरिंग’ के 2019-2020 के परिणामों को उद्घृत किया गया है। ये सालाना मोनिटरिंग क्षतिग्रस्त सामलाती भूमि की बहाली के पर्यावरणीय लाभों की मात्रा निर्धारित करने के लिए एफईएस द्वारा की जाती है। समुदायिक प्रबंधन और कॉमन्स की बहाली के समर्थन में साक्ष्य बनाने के लिए सालाना सात राज्यों में 150 साइटों पर ये निगरानी की जाती है।

प्रस्तुत लेख प्रतिभा पंत द्वारा किया गया अनुवाद है। मूल लेख के लिए यहाँ क्लिक करें।

ये आर्टिकल पहली बार अप्रैल २०२२ में पब्लिश हुआ था .

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