उदयपुर-सिरोही राजमार्ग पर उदयपुर से कुछ 50 कि.मी. दूर गोगुंडा ब्लॉक में एक रास्ता दाईं ओर जाता है। कई घुमावदार मोड़ों वाला ये रास्ता नान्देशामा की छोटी सी बाज़ार से होते हुए आपको तीरोल गाँव ले जाता है। तीरोल राजमार्ग से करीब 25 कि.मी. दूर है।
अरावली की पहाड़ियों से घिरे इस गाँव का इलाका छोटी पहाड़ियों चट्टानों से भरपूर और ऊबड़ – खाबड़ है। मानसून के महीनों में पूरा इलाका हरी घास से भर जाता है जो ठंड आने पर सुनहरी हो जाती है। पश्चिमी भारत के किसी भी अन्य गाँव की तरह जनवरी के महीने में भी जब वनस्पतियाँ सूख चुकी होती हैं तीरोल का प्राकृतिक सौदर्य देखते ही बनता है। गाँव में राजपूत और जनजातियाँ खास तौर पर ‘भील’ रहते हैं।
इस क्षेत्र में 637 मि.मी. की औसत वार्षिक वर्षा के बावजूद भी पानी की कमी रहती है। पानी की मुख्य स्रोत कुँए हैं। महिलाओं और लड़कियों को सिर पर पानी ढ़ोकर लाने के लिए लम्बा रास्ता तय करना पड़ता है। कपड़े धोने और घरेलू ज़रूरतों के लिए पानी भरने हेतु पास के हैण्ड पम्पों, नलों या कुओं के पास लम्बी कतारें आम हैं। तीरोल में भी कुछ वर्ष पूर्व तक यहीं स्थिति थी। हालांकि गाँव चम्बल की एक सहायक नदी ‘बनास’ के किनारे बसा है फिर भी पानी और चारे की यहाँ बेहद कमी थी। लेकिन पिछले कुछ समय में कुछ ऐसा हुआ है जिससे यहाँ का परिदृश्य बदला है। हुआ यूं कि यहाँ के ग्रामीण समुदाय ने एकजुट होकर 52 हेक्टेयर की अप्रबंधित सामलाती भूमि का संरक्षण किया जिससे स्थानीय समुदाय को न सिर्फ एक सकारात्मक ऊर्जा मिली, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिकीय फायदे के लिए ‘नेचर बेस्ड सोल्युशंस’ या ‘प्रकृति आधारित समाधानों’ को समझने के लिए ये जगह एक शानदार उदाहरण के तौर पर उभरी है।
सामलाती भूमि का महत्व – ग्रामीण समुदायों की आजीविका के दो मुख्य स्रोत – कृषि और पशुपालन – काफी हद तक सामलाती भूमि पर निर्भर करते हैं। मेवाड़ के इस इलाके के गाँवों के औसतन आधे से भी ज्यादा घर विभिन्न प्रकार के उत्पादों जैसे भोजन (फल, शाक, अनाज), पशुओं के लिए चारे और बिक्री योग्य अन्य लघु उपजों के लिए इस पर आश्रित हैं। ये उपज स्थानीय समुदाय के खाने और बेचने दोनों के काम आती है। सामलाती भूमि का सही प्रबंधन नहीं होने से इसका निरंतर क्षय हुआ है जिससे इस पर निर्भर लोगों की आजीविका और पारिस्थितिकीय तंत्र दोनों पर ही प्रभाव पड़ा है।
तीरोल के सामलाती चरागाह के संरक्षण का काम 2017 में शुरू हुआ। अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और कोषाध्यक्ष समेत एक 14 सदस्यीय ‘चरागाह प्रबन्धन और विकास समिति’ बनाई गयी। तब से समिति की नियमित बैठकें हो रहीं हैं जिनमें गाँव की पारिस्थितिकी की पुनर्बहाली के लिए जरूरी संरक्षण- संवर्धन के कामों की वरीयता तय की जाती है। समिति के कार्य संचालन और निर्णय प्रक्रिया में मेघ सिंह (अध्यक्ष), लखमा राम (उपाध्यक्ष) तथा जोध सिंह (कोषाध्यक्ष) की भूमिका अहम रही है।
45 वर्षीय ‘खीमा राम’ बताते हैं ‘गाँव की सामलाती भूमि के संरक्षण का काम उसी वर्ष सामुदायिक भागीदारी के साथ शुरू हो गया’। ख़ीमा राम तीरोल के जनजातीय समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और समिति के ‘कम्युनिटी रिसोर्स पर्सन’ भी हैं। ‘सबसे पहले चरागाह का सर्वेक्षण किया गया और भूमि को दो भागों में बांटा गया जिससे काम को अलग-अलग चरणों में पूरा करने में सुविधा हो। पहले चरण में करीब 20 हेक्टेयर भूमि की चारों ओर पत्थर की पक्की दीवार बनाकर घेराबंदी की गयी जबकि 32 हेक्टेयर को पशुओं के चरने के लिए खुला छोड़ दिया गया’।
सर्वे से पता चला कि चरागाह खर-पतवारों खासतौर पर लैंटाना से भरा पड़ा है। इसलिए शुरुआती काम घेराबंदी से सुरक्षित किए हुए क्षेत्र से खर-पतवारों को समाप्त करना था। इसके बाद एंड्राइड आधारित टूल्स जैसे कॉमन लैंड मैपिंग (सीएलएम), ग्राउंड वाटर मोनिटरिंग टूल (जीडब्लूएमटी) और कम्पोजिट लैंडस्केप एंड असेसमेंट टूल (क्लार्ट) की मदद से क्रमशः सामलाती जमीन का सीमानिर्धारण, उसमें जलस्तर का मापन और सुरक्षित क्षेत्र में जैवभौतिक प्रक्रियाओं को करने की योजना तैयार की गई। India Observatory से इन टूल्स के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
तीरोल के चरागाह में बारिश के पानी के बहाव की गति को कम करने के लिए ‘लूज़ बोल्डर चेक डैम्स’ और मेढ़ों का निर्माण किया गया। इसके साथ ही घास की देसी प्रजातियों के बीज बोए गए और चरागाह को फिर से हरा-भरा करने के लिए स्थानीय प्रजातियों की तकरीबन 12,000 पौधें लगाई गईं। महुआ (मधुका इंडिका), सलर (बोसवेलिया सेराटा), कदय (स्टरकुलिया यूरेन्स), बहड़ (टरमीनेलिया बेलिरिया), तेंदू (डायोस्पाईरॉस मेलनोंजाइलोन), और खिरनी (राइटिया टिंकटोरिया) इत्यादि प्रजातियों के पौधे चरागाह में रोपे गए। चरागाह के इस हिस्से की घेराबंदी से पशुओं का घास चरना बंद हो गया जिससे पुनर्जनन में सहायता मिली और मृदा अपर्दन भी कम हुआ। हालांकि खुली चराई पर रोक लगाई गयी पर समुदाय के लोग इस क्षेत्र से अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ चारा काटकर कर ले जा सकते हैं।
खीमा राम के अनुसार ‘चरागाह में घास तेजी से बढ़ी जिसका कुछ फ़ायदा हुआ। 2018 में कार्य के सकारात्मक परिणाम नज़र आने लगे और उत्पादन कम होने के बावजूद कुछ घास उपलब्ध हुई। वर्ष 2019 से घास की पैदावार अच्छी रही है’। खीमा राम आगे कहते हैं ‘अगर इस साल की ही बात करें (2021 मानसून के बाद) तो गाँव के 300 परिवारों ने करीब 150 पूले घास इकट्ठा की। इसको सुखा कर रख लिया गया है और अगले मानसून तक मतलब पूरे साल के लिए यह पर्याप्त होगी। मानसून में नयी घास तैयार हो जायेगी। स्वयं खीमा राम ने 8 बकरियां तथा एक गाय पाली है। वे बताते हैं ‘एक पूला घास की कीमत 10 रू के करीब है। अकेले 2021 में ही संरक्षित चरागाह से समुदाय को कुछ 4.5 लाख का चारा मिला जिसका सीधा असर मवेशियों से मिलने वाले उत्पादों पर पड़ा है। पशुधन पर आश्रित परिवार ज्यादा आत्मनिर्भर हुए हैं। खीमा राम जैसे अनेक लोगों के लिए बकरे को बेचना आमदनी का कभी-कभार होने वाला अतिरिक्त जरिया है जो कि काफी जरूरी है। लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण गाय का दूध है जिससे परिवार के पोषण में इजाफा होता है। ऐसी परिस्थितियों में सामलाती चरागाह से मुफ्त चारे की उपलबद्धता उनके लिए बड़ा सहारा है।
सामुदायिक प्रयासों से गाँव में पानी की उपलब्धता भी बढ़ी है। पानी अब पूरे वर्ष उपलब्ध रहता है जिससे किसान जाड़ों में बोई जाने वाली रबी की फसल भी उगा सकते हैं। खीमा राम कहते हैं ‘2018-19 में एलबीसीडी का काम चला था। नालों में बाँध लगाए थे। उससे पानी का बहाव रुका। गाँव में पानी की बढ़ोत्तरी हुई है। कुओं में पानी बढ़ा है। गेहूँ के सीजन में पहले पानी कम पड़ता था अब नहीं पड़ता। पूरे साल पानी रहता है’।
मेवाड़ के ये गाँव खेती से ज्यादा पशुपालन पर आश्रित हैं। खेती योग्य जमीन कम है, इलाका पहाड़ी है और उत्पादन कम। खीमा राम के पास 1.5 बीघा जमीन है। अभी हाल तक ही वे केवल खरीफ के मौसम में मक्के की खेती करते थे। उनकी जमीन चारागाह से नीचे की तरफ है। चरागाह में हुए जल संरक्षण का इसे पूरा लाभ मिल रहा है। जाड़ों में भी मिट्टी नम रहती है।ये पहली बार है (दिसम्बर 2021) जब उन्होंने चने और सरसों की फसल उगाई। अभी फसल खेत में लगी हुई है और उन्हें इसके पकने का इंतज़ार है।
समुदाय शासित सामलाती चारागाह भूमि से समुदाय की चारे और पानी की जरूरतें पूरी हो रही हैं, उनकी आर्थिक मदद हो रही है वहीं अप्रबंधित चरागाहों की तुलना में संरक्षित और प्रबंधित चारागाहों के असंख्य पर्यावरणीय, पारिस्थितिकीय तथा जलवायवीय लाभ इस काम को हर दृष्टि से फायदेमंद बनाते हैं।
ऐसे कई मानक हैं जो समुदाय द्वारा प्रबंधित भूमि के इकोलोजिकल और जलवायवीय लाभ की तरफ इशारा करते हैं। सामलाती भूमि कार्बन का प्राकृतिक भण्डार होती है जो कार्बन की बहुत सारी मात्रा को लंबे समय तक सुरक्षित रखे रहती है। सामलाती भूमि के क्षरण से इसकी कार्बन संचय की क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता (कोनसेंट्रेशन) बढ़ती है। ऐसी भूमि के पुनरुद्धार (रिवाइवल) के लाभों को मापने के लिए एफईएस अलग-अलग जगहों की वार्षिक रूप से ‘सामाजिक-पारिस्थितिकी (सोशिओ- एकोलोजिकल) मोनिटरिंग’ करता है। इसमें उदयपुर के इलाके भी आते हैं। 2019–20 में की गई इन जांचों के परिणाम बताते हैं कि समुदाय द्वारा प्रबंधित सामलाती भूमि में कार्बन की मात्रा (12.6 टन/ हेक्टेयर), अप्रबंधित सामलाती भूमि में कार्बन की मात्रा (2.6 टन/ हेक्टेयर) से तकरीबन 5 गुना ज्यादा है। इसी प्रकार समुदाय द्वारा प्रबंधित सामलाती जमीन में पैदावार (27.9 टन/ हेक्टेयर) अप्रबंधित जमीन की तुलना में 5 गुना ज्यादा पायी गयी (5.8 टन/ हेक्टेयर)।
किसी भी पारिस्थिक तंत्र की समृद्धि तथा स्वास्थ्य को उसकी प्रजातीय विविधता से भी मापा जा सकता है। प्रजातीय विविधता में कमी उस परितंत्र के असंतुलित होने की ओर इशारा करती है। वहीं अच्छी प्रजातीय विविधता परितंत्र की बदलती हुई जलवायवीय परिस्थितियों, परागण और भविष्य की अन्य चुनौतियों से संघर्ष की ताकत बढाती है। इससे समुदाय को खाद्य सुरक्षा मिलती है जो उनकी आजीविका और खुशहाली में बढ़ोत्तरी करने में मददगार है। प्रजातीय विविधता स्वच्छ जल की उपलब्धता तथा गुणवत्ता को सुधारने के साथ ही साथ जलवायु और हवा की गुणवत्ता को भी नियंत्रित करती है। किसी क्षेत्र की प्रजातीय विविधता मापने के सूचकों में से दो मुख्य हैं- 1) ट्री स्पेसीस रिचनेस और 2) शेनोन इंडेक्स। जिस अध्ययन का जिक्र ऊपर किया गया है उसमें ‘समुदाय प्रबंधित सामलाती जमीन’ की ट्री स्पेसीस रिचनेस (प्रजातीय समृद्धि) S: 14 और शेनोन इंडेक्स: 2.05 पाया गया। वहीं अप्रबंधित भूमि में स्पेसीस रिचनेस S का मान: 8 और शेनोन इंडेक्स: 1.53 पाया गया। जहाँ प्रजातीय समृद्धि ज्यादा होती है वहाँ गैर काष्ठ वन उत्पाद (नॉन टिंबर फॉरेस्ट प्रोड्यूस), प्राकृतिक रेशे तथा समुदाय के लिए ईंधन की लकड़ी की उपलब्धता भी अधिक होती है। सामलाती भूमि में वानस्पतिक विविधता चारे की अच्छी उपलब्धता को भी दिखाता है |
इस इलाके में भूमिहीन, सीमान्त और छोटे किसान कुल ग्रामीण परिवारों का 85% हैं जिनमें से ज्यादातर पशुपालन करते हैं। करीब 75% चारे के लिए गाँव की सामलाती भूमि पर आश्रित हैं। गाँव में चारे की उपलब्धता कम पड़ जाने पर इसकी आपूर्ति समुदाय को अन्य स्रोतों से चारा खरीदकर करनी पड़ती है। चारे की उपलब्धता में कमी आर्थिक रूप से कमज़ोर घरों को और भी कमज़ोर बना देती है। चारे पर खर्चे में बढ़ोत्तरी लोगों को पशुपालन छोड़ने पर मजबूर कर देती है। इन इलाकों में पशुपालन तभी संभव है जब चारे के बड़े हिस्से की आपूर्ति सामलाती भूमि से ही हो। एफईएस के अध्ययन के आंकड़ों के अनुसार इस क्षेत्र की समुदाय प्रबंधित सामलाती भूमि में चारे का उत्पादन 1.5 टन/हेक्टेयर है जबकि अप्रबंधित सामलाती भूमि में यह 0.1 टन/हेक्टेयर है। जाहिर है कि प्रबंधित क्षेत्र में उत्पादन 15 गुना ज्यादा है। सामलाती चरागाहों में चारे की उपलब्धता में सुधार सुनिश्चित करता है कि समुदाय की बाज़ार के स्रोतों पर निर्भरता में कमी आए और ये सीमान्त समुदाय पशुपालन कर सकें |
तीरोल के चरागाह के पारिस्थितिकीय तंत्र की पुनर्बहाली और संरक्षण एक ‘नेचर बेस्ड सोल्यूशन’ या ‘प्रकृति पर आधारित उपाय’ है जिसकी मदद से चारे और पानी की कमी से सम्बंधित सामाजिक चुनौतियों, वनस्पति उत्पादन में वृद्धि के माध्यम से कार्बन अवशोषण, वानस्पतिक विविधता में बढ़ोत्तरी, एक वर्ष में एक से अधिक फसलों की पैदावार से लेकर पशुपालन को संभव बनाकर समुदाय को आत्मनिर्भर बनाने जैसी चुनौतियों का समाधान निकलता दिख रहा है।
तीरोल में चरागाह के पारितंत्र की पुनर्बहाली और संरक्षण का काम अभी चल रहा है और समुदाय इसका मतलब समझता है। वे जानते हैं कि सामलाती भूमि के संरक्षण, पुनरुद्धार और प्रबंधन के लिए उनका सतत प्रयासरत रहना बहुत ज़रूरी है। इसलिए चरागाह के पारिस्थितिक तंत्र को और अधिक स्वस्थ बनाने के लिए समुदाय मिट्टी तथा नमी के संरक्षण के लिए लगातार काम कर रहा है। पहाड़ी चरागाह के चारों तरफ समान ऊँचाई की खाइयाँ (कोंटूर ट्रेंचेस) खोदी जा रही हैं। सार्वजनिक फण्ड जैसे कि मनरेगा का इस्तेमाल करके पांच कच्चे तालाब तथा दो एनीकट बनाने की योजना भी है। खीमा राम के अनुसार “एनीकट का काम चल रहा है। एक महीने पहले दिसम्बर में शुरू हुआ। एक बन चुका है और दूसरे पर अभी काम चल रहा है। ‘तलाई’ मानसून से पहले ही चालू हुई थी। 2021 में ही बनी। मिट्टी की है तो पहले साल पानी ज्यादा नहीं रुका। मिट्टी का जमाव नहीं हुआ। आशा है कि अगले साल से पानी रुकेगा”|
चरागाह परितंत्र की पुनर्बहाली और प्रबंधन के लिए सतत सामुदायिक प्रयास सुनिश्चित करेंगे कि सामलाती भूमि उपजाऊ और स्वस्थ रहे। ये प्रयास वर्षा के पानी के बहाव को और भी धीमा करेंगे, बारिश के पानी का संचयन करेंगे और भूजल को बढ़ाएँगे तथा मिट्टी को नम रखेंगे जिससे पेड़-पौधों और घास की उपज में बढ़ोत्तरी होगी। ये साफ दिखता है कि चरागाह में बड़ी संख्या में महिलाएं मजदूरी कर रहीं हैं। इतनी अथक मेहनत इसलिए क्योंकि इस तरह के काम को करने के लिए जनवरी से लेकर अप्रैल तक मौसम अनुकूल है। मई से चिलचिलाती गरमी में काम तो दूर धूप में खड़ा होना भी दूभर हो जाएगा। इस बात को यहाँ की औरतों से ज्यादा कोई समझ सकता है क्या?
इस इलाके में, जिसमें तीरोल भी आता है, ‘फ़ाउंडेशन फॉर इकोलोजिकल सेक्युर्टी’ (एफईएस) समुदायों को सामलाती भूमि का बेहतर तरीके से प्रबंधन करने में सन 2000 से मदद कर रही है। ‘एफईएस’ एक गैर सरकारी संस्था है जो कि पूरे देश में प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों – जैसे कि वन, चरागाह और पानी के स्रोतों आदि के संरक्षण के लिए काम करती है जिससे ग्रामीण समुदाय की आर्थिक और सामाजिक उन्नति हो। ये कॉमन या सामलाती संसाधन ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिक तंत्र की रीढ़ हैं। ‘एफईएस’ के बारे में अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें।
तीरोल में ‘रेस्टोरेशन और लाइवलिहुड इनिशिएटिव’ के तहत किए गए इस काम को बजाज ऑटो, एक्सिस बैंक फ़ाउंडेशन, ग्रो ट्रीज के आर्थिक सहयोग से किए गया। इसके साथ ही समुदाय ने ‘चरागाह विकास कार्य’ के तहत अपने चरागाहों के पुनरुद्धार के काम के लिए मनरेगा से पर्याप्त धन का लाभ उठाया।
इस लेख में ‘वार्षिक सामाजिक-पारिस्थितिकी (सोशिओ- एकोलोजिकल) मोनिटरिंग’ के 2019-2020 के परिणामों को उद्घृत किया गया है। ये सालाना मोनिटरिंग क्षतिग्रस्त सामलाती भूमि की बहाली के पर्यावरणीय लाभों की मात्रा निर्धारित करने के लिए एफईएस द्वारा की जाती है। समुदायिक प्रबंधन और कॉमन्स की बहाली के समर्थन में साक्ष्य बनाने के लिए सालाना सात राज्यों में 150 साइटों पर ये निगरानी की जाती है।
प्रस्तुत लेख प्रतिभा पंत द्वारा किया गया अनुवाद है। मूल लेख के लिए यहाँ क्लिक करें।
ये आर्टिकल पहली बार अप्रैल २०२२ में पब्लिश हुआ था .
More Stories
शानदार ‘गंगा डॉल्फ़िन’ गायब न हो जाए!
मछलियों में टाइगर – माहसीर